सोमवार, 12 अगस्त 2019

शायद वो 1989 का साल था...


प्यारे भाइयों और बहनों, 
                                       बहुत दिनों से हाथ कुछ लिखने को मचल रहे थे और आज दिमाग ने भी साथ दे दिया। एक यादों के नोट्स का फोंल्डर खुल गया और मैं लिखने बैठ गया। शायद वो 89 का साल था, आज से करीब तीस साल पहले, जब मैं सात साल का था। स्थान? मेरा पैतृक गाँव- सावा   

तो लिखने से पहले मैं इसी उलझन में हूँ कि आपको सही साल में ले जा सकूँ। पहले सावा के रावले में हमारे घर में प्रवेश करते हैं।

                       नीम के नीचे बने हुए शिव मंदिर के उस चबूतरे के बायीं ओर का दरवाजा विजय सिंह जी माटसाब का यानि मेरे दाता का था। दरवाजा मतलब, एक लंबा चौड़ा मुख्य द्वार। दरवाजे में ही एक बैठक का कमरा- जहां दाता का अधिकतर समय व्यतीत होता था। उनसे मिलने वाले भी यहीं आते थे। हमारा होमवर्क यहीं जांचा जाता।  

और थोड़ा अंदर चलें तो खुले आँगन के बाद चहारदीवारी में कमरे और छतें शुरू होती हैं।

“पेलो कमरो” यानि पहला कमरा जिसमें छोटे दाता और भाबू रहते हैं। इसके ऊपर अगर आप “मेढ़ी” (छत) पर चढ़ोगे तो पूरे रावले को देख सकते हो। “बचलो कमरो” (बीच का कमरा) में तेज़ू काकीसा, भमु, काना और राणु रहते हैं। इस वक़्त लोकू काका सावा में नहीं थे। काकीसा ही सब संभालते थे। मगर उनके सामान के अलावा इस बिचले कमरे में मम्मी-पापा की दोनों गोदरेज की अलमारियाँ और एक बड़ा बक्सा भी रखा है, जिसे देख कर मुझे मम्मी की याद आती थी।  

इसी कमरे में नजदीकी रिशतेदारों को भी ठहराया जाता था। लदूना से भुआ-फूफोसा आते, तो यहीं उनके लिए रसना शर्बत बनाकर परोसा जाता था। मेरे लिए वो ही मेहमान थे मेरे बचपन में। क्योंकि उनकी आवभगत में भाबू कोई कमी नहीं रखते थे। वो ऐसा समय था, जब मेरे दूसरे रक्त-संबंधियों के बारे में मेरी जानकारी शून्य ही थी। बिचले कमरे के बाहर एक सुंदर छायादार लालपत्ती (बोगनवेलिया) की बेल थी जिससे पूरे चौक में छाया रहती थी।

इस कमरे के बाद आता था ढाल्या। यहाँ गायों के लिए चारा और पुराना भंगार स्टोर होता था। इसी स्टोर में पापा की टूटी साइकल भी पड़ी होती थी, जिसके बारे में दाता बताते थे कि वो रावले में आई पहली साइकल थी। हम दाता के किस्सों को बड़ी जिज्ञासा से सुना करते थे। इसी ढाल्ये के कमरे में किसी वक़्त मोटे दाता ओंकार सिंह जी रहा करते थे।

आप यदि आज सावा जाओगे तो अब यहाँ तेज़ू काकीसा की रसोई है। इसके बाई और चोपाड़ और यदि सीधे जाओ तो “गायों का ठाण” आ जाता है। चोपाड़ में हम सबसे आख़िर में एंट्री लेंगे।

गायों के ठाण में मेरे बचपन की स्मृति में बसी “पीली गाय” और “शारदा गाय” बंधी मिल जाएंगी। पीली गाय का कद अपेक्षाकृत लंबा था और शारदा मेरी आदर्श गाय थी। कुछ बकरियाँ भी थी, पर वो मुझे इतनी याद नहीं। इनके भी काफी किस्से हैं, वो फिर कभी। ठाण में एक छोटी सी “बारी” (खिड़की) है जिसे राजू दादा के घर का shortcut रास्ता निकलता है। अब इसे बंद कर दिया गया है। कहा जाता है कि पहले घर की औरते इन्हीं छोटी बारियों से होकर एक दूसरे से मिलने जाती थीं। रावले के चौक में तो अब निकलने लगी हैं।  

अब ठाण से चलते है चोपाड़ के पीछे। यहाँ दाता ने काफी फूल और तरह तरह के पौधे लगा रखे हैं। अमरूद और आम भी हैं। आगे कुछ कदम पर चबूतरा है जहां कोने में अनार का पेड़ है। सामने नाल (सीढ़ियाँ) जा रही है , यानि दूसरी “मेढ़ी”। इसपे चढ़कर आप घाटी का नज़ारा देख सकते हैं।

अनार के पेड़ के सामने एक छोटा सा कमरा है, जिसे शिव काका का कमरा भी कहते हैं। मैं उन दिनों यहीं रहता था। मेरी पढ़ाई का समान और एक छोटा सा पुजाघर भी है, जहां मैं अपने हिसाब से पुजा करता था। इस कमरे में छिपकली भी यदा-कदा अंडे दे जाती है।

“नाल” और शिव काका के कमरे के बीच में खुला अहाता है, जिसके राइट साइड में रेत का ढेर है, जिस पर कभी-कभी नहाने से पहले या छुट्टी वाले दिन हम उछलकूद करते थे। और विपरीत दिशा में यानि नाल के ठीक नीचे पानी की टंकी बनी हुई है और नहाने की जगह भी है। दरवाजा नहीं है, बल्कि भाबू ने पुरानी गहरे रंग की साड़ी से आढ़ कर दी है। बच्चों को तो खुले में ही नहलाया जाता है मगर घर की औरतें नहाते वक़्त आढ़ कर लेती हैं। पानी की टंकी के ऊपर खिड़की से आप हमारा बगीचा निहार सकते हैं।  

  पानी की टंकी और रेत के ढेर के बीच ठीक सामने, यानि चोपाड़ के पिछले गेट के विपरीत एक अंधेरा कमरा है और इस कमरे के अंदर भी एक और कमरा है। इसके अंदर मैं जब भी गया हूँ, भाबु की साड़ी पकड़ के ही गया हूँ। गुप्प अंधेरा और अनाप-शनाप कबाड़ वाला बड़ा सा भयावह कमरा। कोई बच्चा इसमें नहीं जाता था। अब यहाँ बेबी काकिसा का परिवार रहता है। और अब ये भयावह भी नहीं रहा। शिव काका के कमरे की जगह नए कमरे ने ले ली। पानी की टंकी की जगह स्टोर रूम आ गया है।

अनार के पेड़ के नीचे एक झूला था, जिस में छोटे से कुलू को सुलाया जाता था। कुलू के हाथ या पाँव में फ्रेक्चर हो गया था तो प्लास्टर बंधा रहता था, वो झूले में लेटे-लेटे ही खुद को टेढ़ा करके जमीन पर पेशाब कर दिया करता था और आते-जाते लोगों को चिढ़कर “ढांडी- ढांडी” (जानवर) कह देता था।

अब अनार के पेड़ और नाल के बीच से रास्ता जाता है इस बड़े से घर के आखिरी और सबसे खूबसूरत हिस्से का, जिसे हम बगीची कहते थे। बगीची में प्रवेश करते ही दोनों तरह यूकेलिप्टस के दो-तीन दैत्याकार पेड़ हैं। ये पेड़ इतने विशाल थे कि सावा के बस स्टैंड से दिख जाते थे। एकदम कोर्नर पर लालपत्ती की बेल है, जिसके नीचे जया जीजा, झीलु जीजा और डिम्पल जीजा “गुड़िया –गुड़िया” खेला करते थे। एक बार जया जीजा ने एक प्रोपर मिट्टी और गोबर का चूल्हा भी बनाया था, जिसकी खूब तारीफ हुई थी। थोड़ा आगे बढ्ने पर कनेर, मोगरा, गूँदे का पेड़, चमेली, गुलाब, झमेरी का पेड़, इमली, शहतूत का पेड़ भी मिल जाएंगे। बिल्व पत्र भी है, जिसके लिए कई लोग सोमवार को हमारे यहाँ आते थे।

बगीची के एक कोर्नर में दाता ने कई साल पहले गोबर-गैस संयंत्र लगवाया था। जो सुचारु रूप से काम करता रहा। इसमें गोबर डालने की प्रक्रिया मेरे लिए हमेशा उत्सुकता का विषय रही। बगीची के अंतिम कोर्नर पर “तारच” (शौचालय) है, जिसमें बैठ कर आपको बस निवृत्त होना है, बाकी का सफाई का काम बाहर की ओर सूअर कर देते थे। इसमें पानी की जरूरत नहीं पड़ती थी। बगीची के एक अन्य कोने में खुला हुआ स्नानागार भी था, जहां आप बाल्टी, मग और साबुन ले जाकर नहा सकते हैं। ये भी अधिकतर महिलाओं के लिए आरक्षित था।

अब बगीची भी बदल गयी है। लालपत्ती की जगह बेबी काकीसा की रसोई आ गयी है। गोबर गैस संयंत्र हमारी यादों में रह गया है, उसकी जगह अब पानी का भूमिगत टँक है। “तारच” और स्नानागार भी विलुप्त हो गए और उनकी जगह नए आधुनिक toilet और बाथरूम हैं। बगीची के आधे हिस्से में घर की जरूरत को देखते हुए कुलू की शादी से पहले दो कमरे बनवा दिये गए। इनमें से एक गेस्टरूम है और दूसरा कुलू और टीना बिंदणी का कमरा है, जिसमें मेरी प्यारी भतीजी यशु की किलकारियाँ भी सुनी जा सकती हैं।

बगीची के अंत में काफी पहले एक गेट भी खोल दिया गया था जहां से आप मुख्य सड़क या घाटी की ओर जा सकते हो।

अब पीछे मुड़ते है, और बगीची से निकलकर प्रवेश करते हैं, हम सबकी प्यारी चोपाड़ में। ये सभी का लिविंग रूम था। चोपाड़ यानि हमारी रसोई, हमारा स्टोर, हमारा स्टडी रूम, हमारा सबकुछ।इसके दो किवाड़ थे। पहला जो रावले की तरफ या मुख्य दरवाजे की तरफ खुलता था और दूसरा जो बगीची की ओर जाता था।
चोपाड़ में आप जूते-चप्पल नहीं ला सकते क्यूंकी किवाड़ के ठीक सामने कुलदेवी बायण माता या ड्याड़ी माताजी का स्थान था। ड्याड़ी माताजी के लेफ्ट साइड में भाबू का मुख्य चूल्हा था, जहां हमारा खाना पकाया जाता था। सर्दियों में भाबू गाय के बछड़े या बकरी के बच्चे को अपनी गोद में लेकर ठंड से बचाने के लिए आग से तपिश करते थे। ड्याड़ी माताजी के राइट साइड में पानी का परिंडा था जहां हाथ धोकर ही पानी पी सकते थे। ये स्थान बहुत ठंडा रहता था। फ्रिज तो था नहीं, तो गर्मी के दिनों में दाता कभी तरबूज या आम लाते तो उन्हें यहीं रखकर ठंडा किया जाता था।

परिण्डे के पास कोने में भगवान का आल्या (ताक) था जहां शिव-पार्वती की तस्वीर थी। भाबू और दाता यहीं पूजा किया करते थे। शक्कर का प्रसाद तो सामान्य था पर सोमवार को पंचामृत भी चढ़ाया जाता था। दहि-शहद के इस प्रसाद का मुझे हमेशा इंतज़ार रहता था। भगवान की ताक के बाद दूसरा किवाड़ खुलता है और उसके बाद दूसरे कोने में जूतों की रेक थी। छोटी सी। उसके बाद दो बड़ी बड़ी ताकें जो परिण्डे के ठीक सामने पड़ती थी। यहाँ हम बच्चों की किताबें या जरूरी सामान पड़ा रहता था।

मुख्य किवाड़ और चूल्हे के बीच में मिट्टी और गोबर से बनी दो कोठियाँ थीं। इन कोठियों पर लकड़ी के छोटे-छोटे फाटक लगे थे। कोठे के अंदर गेंहू, मक्की को स्टोर किया जाता था, ये बहुत गहरी थीं। कोठे के ऊपर खाने पीने का सामान रखा रहता था। भाबू बताते हैं कि जब पापा छोटे थे तो गरम रोटी खाने के लिए कोठे पर चढ़ जाते थे और दूसरे भाई-बहनों से पहले खाना चट कर जाते थे।

अब ये चोपाड़ भी इतिहास हो गयी है। करीब बीस साल पहले इसे तोड़ दिया गया और इसकी जगह चौक ने ले ली। हालांकि ड्याड़ी माताजी का मंदिर जरूर बरकरार है। मगर मैं चोपाड़ को बहुत याद करता हूँ। खैर!!         
मैं उस वक़्त को टटोल रहा हूँ, जब मेरी बहनें होली से पहले मेरे लिए नारियल बनाती थीं। जी हाँ, नारियल। वो भी गोबर के।

एक मिट्टी के दीपक में कुछ पैसे रख दिये जाते थे 20 पैसा, 10 पैसा या चार आने (25 पैसा)। और 50 पैसे या एक रुपया रखे होते तो कहने ही क्या! अब इस दीपक के ऊपर एक और दीपक औंधे मुंह रख के इसे ढँक दिया जाता और गोबर को नारियल की आकृति देके उसके बीचोंबीच ये दीपक का बना कटोरा रख के पेकिंग कर दी जाती। फिर इसे सुखाने की जद्दोजहद होती। बार बार चेक किया जाता कि बराबर सूखा है या नहीं। इसके साथ ही बनाए जाते थे बड़ूल्ये। बड़ूल्ये भी गोबर के ही बने होते थे और अलग अलग आकृति के। मगर हर बड़ूल्ये के बीच में छेद रखा जाता था ताकि इसे माला में पिरोया जा सके। षट्कोण, चौकर, तारा, चंद्राकार, अर्द्ध चंद्राकार बड़ूल्ये।

और जब होलिका दहन होता तो सावा रावले के ऊपर घाटी पे जाकर इन बड़ूल्यों की माला को अग्निदेव को समर्पित कर दिया जाता था।

हम बच्चों के हाथ में खुले बड़ूल्ये लग जाते तो मज़ा दुगुना हो जाता था। बड़ूल्ये को अंगूठे, तर्जनी और मध्यमिका से पकड़ के फर्र से हवा में हवा में उछालने का मज़ा ही कुछ और था। कभी कभी कुछ बहादुर बच्चे जलते बड़ूल्ये के साथ भी ऐसी हिमाकत कर जाते जिसका खामियाजा किसी की जली हुई ओढनी होती थी या बासा की धोती में काणा (छेद)।

नारियल को बहनें भाइयों को देती और हम इस आस से फोड़ते कि उसमें कितने पैसे निकलेंगे। मेरे स्मृतिपटल पर अब भी वो पैसे निकलने की खुशी और गोबर की महक गहरे पैठी है।

मगर इन सब सालों में बड़ूल्ये कहीं पीछे छुट गए। मैं आज भी उन दिनों को बहुत मिस करता हूँ। काश हम ज़िंदगी भर सावा ही रहते। बचपन जैसा मन हमेशा बना रहता।

मैं अप्पू से भी पहले काना और कुलू का दीपु दादा था। भमु मेरी लाड़ली थी। हम भाई-बहनों जैसा कोई भी नहीं था। चोपाड़ में राजू दादा के ठहाके हुआ करते थे। मैंने हमेशा उन्हें अभिभावक माना।   

अब मैं एक साढ़े छः महीने के बेटे का पिता हूँ, उसे हँसते-खिलखिलाते देख मुझे यही लगता है, कि उन दिनों  मैं भी इतना ही सरल और निष्कपट बच्चा रहा हूँगा। मैं उसे कुछ ऐसा ही नैसर्गिक बचपन देना चाहता हूँ। ये संभव भी है। शायद नहीं भी।

देखते हैं, क्या होता है। आखिर हमें “प्रेक्टिकल” भी तो बनना पड़ता है। समय आपको “समझदार” बना देता है।

ये 2019 है, शायद वो 1989 का साल था, मेरा सातवाँ साल। 

मेरा बेहद सुखद, अनगढ़, सुनहरा साल   


क्रमशः
राजसावा

गुरुवार, 28 मार्च 2013

नाच

प्रणाम, 

                                  दोस्तों, दुःख और सुख को ग्रहण करने के हम सबके अपने-अपने तरीके हैं। मृत्यु और जीवन को आप कैसे लेते हैं, ये कई कारकों पे निर्भर करता है। इसी सन्दर्भ में एक छोटी-सी कहानी पेश कर रहा हूँ- 

                        एक जाने-माने संगीतकार थे। उन्हें एक अजीब-सा शगल था, कहीं तन्हाई में जा बैठ तबला बजाना। एक बार वे देखते हैं, जैसे ही उन्होंने जंगल में तबला बजाना प्रारंभ किया, तबले की आवाज़ सुनकर बकरी का नन्हा-सा बच्चा दौड़कर आ गया। 


                                                             जैसे-जैसे संगीतकार तबला बजाते, वह कूद-कूद कर नाचता जाता। फिर तो जैसे यह हमेशा का क्रम हो गया, संगीतकार का तबला बजाना और उस मेमने का उछलना, नाचना। 
एक दिन जब उन तबलावादक से नहीं रहा गया, उन्होंने उस मेमने से पूछा, 
                                 'क्या तुम पिछले जन्म के कोई संगीतकार हो या फिर संगीत के मर्मज्ञ, जो शास्त्रीय संगीत का इतना गहरा ज्ञान रखते हो। तुम्हें मेरी राग-रागिनियों की ये पेचीदगियां कैसे समझ में आती हैं?'


                                                               उस मेमने ने कहा, 'आपके तबले पर मेरी माँ का चमड़ा मढ़ा है। जब भी इसमें से ध्वनि बहती है, मुझे लगता है जैसे मेरी माँ प्यार और दुलार भरी आवाज़ से मुझे पुकार रही है और मैं ख़ुशी से नाचने लगता हूँ...।'  

                 दैनिक भास्कर की 'अहा! ज़िन्दगी' के विशेषांक में आई इस प्रस्तुति को पढ़कर लगा, कहीं ये सीमित पाठकों तक ना रह जाए, और मैंने आपके लिए इसे अपने ब्लॉग में उतार दिया। आलोक सेठी जी को हार्दिक धन्यवाद!! 

                               यकीन रखता हूँ कि आपकी होली शांति, मस्ती और रंगों भरी रही होगी। चलिए, कुछ और कहानियाँ आने वाले दिनों में साझा करने की तमन्ना है, तब तक 

झेलते रहिये 
राजसावा  

सोमवार, 25 मार्च 2013

एक सन्देश, एक प्रार्थना

दोस्तों,

                                                    जीवन का पहला और विस्तृत लक्षण है विस्तार। यदि तुम जीवित रहना चाहते हो तो तुम्हें फैलना ही होगा। 


                               जिस समय तुम जीवन का विस्तार बंद कर दोगे, उसी क्षण जान लेना कि मृत्यु ने तुम्हें घेर लिया है। विपत्तियां तुम्हारे सामने हैं।  

                     

                                                       होली के शुभ अवसर पर आप सभी को जीवन के सारे रंग मुबारक़। शालीनता और मर्यादा को ध्यान में रखते हुए इस पावन त्यौहार का भरपूर आनंद लीजिये।


और हाँ, Save Water Please!!!  

शुभेच्छु 
राजसावा 

झेलते रहिये 

सोमवार, 23 जुलाई 2012

"बावजी, आप दुनिया हो!!" -ऋषि बना (बन्जी)

                  और बन्जी (ऋषि बना) ने हम सबको धोखा दे दिया। वो तो चले गये, मग़र काफी-कुछ सोचने और सीखने के लिए छोड़ गए। बहुत बड़ी-बड़ी बातें और बेहद ख़ूबसूरत सपनों को हकीक़त में जीने वाला बंदा, अब अतीत हो चुका है।



   
      रविवार को ऋषि बना ने मुझे करीब 6:45pm call करके बताया कि वो मंगरोप (उनका पैतृक गांव) से अहमदाबाद के लिए निकल चुके हैं।  और रात को मेरे restaurant में dinner करने की इच्छा भी ज़ाहिर की। जब रात को 12 बजे हम थोड़ा free हुए तब याद आया कि बना पधारने वाले थे। जब call किया तो unanswered था। काफी बार ऐसा हुआ कि ऋषि बना सीधे अहमदाबाद निकल जाते थे। 
                              सुबह करीब 8:30am हम दोनों के एक common friend प्रदीप सा का call आया कि ऋषि बना का कल रात road accident  में निधन हो गया।
                              



एकबारगी तो लगा कि ये कोई भद्दा मज़ाक है। काश मज़ाक ही होता। ये यकीन करना अब भी काफ़ी मुश्किल है, एक ज़िंदादिल, अपने सपनो को पूरा करने वाला लड़का और सबसे उम्दा किस्सागो इस दुनिया से कूच कर गया है।

           
              ऋषि बना से मेरी पहली मुलाक़ात 2010 में AZURE (अहमदाबाद) में हुई थी और मेरे अलावा पुरे staff में वो ही मेवाड़ी थे। मेरे एक colleague ने हमारा  intro  करवाया और करीब 15 minutes की बात में हम इत्ते ज्यादा घुलमिल गए कि सभी को हैरत हुई। हमारी दोस्ती की सबसे बड़ी  बुनियाद थी: हमारे संगीत और शायरी को  होने वाले विवाद और एक से विचार। मेरी हर बात पर वो ठहाके लगाते थे। बाद के दिनों में वो मेरे रूम partner भी बने।

   


                    मैं क़ाफ़ी मूडी moody हूँ और शायद यही कारण था कि मैं हर छोटी बात पर नाराज़ हो जाता था और बन्जी हमेशा मुझे मना लेते थे। उन्हें बातें करने, खासतौर पर किस्से सुनाने का बड़ा शौक था। जबकि मैं हमेशा एकांत में रहना पसंद करता था। मैं  क्या कर रहा हूँ, कहाँ busy  हूँ, उससे उन्हें कोई मतलब  नहीं था। वो तो बस हमेशा अपने  किस्सों  के साथ  मेरे सामने तैयार रहते थे। मुझे हमेशा पूरा मान देते थे जबकि मैं उनसे उम्र में छोटा था। 

     


         अगर मैं आपको उनके किस्से सुनाना शुरू हुआ तो यक़ीनन एक क़िताब लिखना ज़्यादा मुनासिब होगा। उनमें किसी भी घटना या कहानी को लफ़्ज़ों में बयान करने का गज़ब हुनर था, शायद इसलिए मैं उन्हें किस्सागो कहा करता था। 
                अपने seniors की नाराज़गी को वो अपनी वाक्पटुता से पल में दूर कर देते थे। मुझे नहीं लगता कि उनके इस जादू से कोई बच पाया हो। AZURE के market research deptt. में वो सबसे smart employee के तौर पर याद किये जायेंगे। 






         हमारी गाढ़ी दोस्ती में भी कई मर्तबा दरार आई, जिसकी ख़ास वजह ऋषि बना की अधिकार थोपने की आदत रही। अगर मैं किसी और को अपना वक़्त दूं या अपनी दुनिया में मसरूफ रहूँ, तो ये उन्हें बर्दाश्त नहीं होता था। वो चाहते थे कि मैं बस उन्ही का अज़ीज़ रहूँ। मगर time के साथ उन्हें भान हुआ कि मैं अव्वल दर्जे का मूडी हूँ। मेरे ऊपर बाक़ायदा उन्होंने study की और मुझे "दुनिया" title से नवाज़ा। 
    "बावजी (मुझे वो इसी नाम से संबोधित करते थे), यार आप दुनिया हो। आपने हमझनो मुश्किल है। कदी तो राजी रो अन कदी जो कणी दुनिया में परा जाओ।" (आपको समझना मुश्किल है। कभी तो आप खुश रहते हो और कभी अपनी ही दुनिया में खो जाते हो।)


         मैं हमारे दौर के महान शायर जनाब गुलज़ार साहब की अच्छी-खासी mimicry कर लेता हूँ। अब बन्जी को मेरी आवाज़ में हर शायरी सुनने की ऐसी आदत पड़ी कि किसी साधारण बात को भी वो मुझे शायराना लहजे में सुनाने को कहते और उनकी मक्खनबाजी इतनी सही होती थी कि मैं कभी मना नहीं कर पाता था। 
    एक दिन मुझसे पूछने लगे कि, "यार हर language में I Love You का पर्याय है पर मेवाड़ी में क्यूँ नहीं है? बात सोचने वाली थी। आखिरकार आपसी रजामंदी से हमने मेवाड़ी में I love you का पर्याय  बना ही लिया: "ले खई?" (कहो, क्या इरादा है?) 


     उसके बाद तो कोई भी बात हो, वो "ले खई?" जरूर use  करते थे। 
                 अपने बचपन से लेकर जवानी तक के हर अच्छे-बुरे दौर के बारे में उन्होंने इतना detailed ब्यौरा दिया है कि उसमे से मैं कई दिलचस्प कहानियां बना सकता हूँ। इतना जिंदादिल दिखने वाले बन्जी अन्दर से काफी गंभीर और गहरे थे। 
    काफी कुछ है बताने को, मगर उन किस्सों को जीने वाला सो चुका है। दुःख इस बात का है कि वो पूरी जिंदगी जीना चाहते थे, मगर कम वक़्त में शायद उन्होंने भरपूर जिंदगी का दोहन किया, और ये बात ज़िन्दगी को अखर गयी। सब-कुछ यही रह गया। सारे भविष्य के plan हवाई हो गए। एक मौज़ थी, जो आई, छाई और लौट गयी। 


          प्रियंका भाभीसा!! बन्जी हमारी प्रार्थनाओं में, हमारे किस्सों, हमारी बातों में हमेशा याद किये जायेंगे। भगवान, आपको इस अपूरणीय क्षति से उबरने का संबल प्रदान करे। 


श्रद्धावनत 
राजसावा





शनिवार, 19 मई 2012

Re-आरम्भ


हां भाई हां!!

काफी दिनों के बाद..


क्या करें..!! 


        पता ही नहीं चला, कि कब अपने रस्ते से उतरकर मैं पगडंडियों पर चल पड़ा. 


बस, "ये भी बीत जायेगा" को जीवनसार मानकर सब अच्छा करने कि जद में "कुछ" से "कुछ भी नहीं" हो गया. 
अब जबकि थोडा वक़्त मिला है, तो मैं फिर से लिखने कि जिद पे अड़ा हूँ. ये भी जानता हूँ कि इत्ता ख़ास भी नहीं रच लूँगा. 
          अहमदाबाद में एक कहानी शुरू की थी ("अट्टहास") जो कि दौड़ भाग और उथल-पुथल में उलझ कर रह गयी और आज जब उसे खोला तो देखा कि उसकी तो चूहों ने धज्जियां उड़ा दी है. 
                 एकबारगी तो लगा कि किसी ने मेरी संपत्ति जला दी हो. मग़र कुछ फायदा सोग मनाने का.? नहीं ना? तो फिर??


             अब फिर से जिद है कुछ अपने लिए लिखने की और आप सबके साथ  बांटने की... हो सकता है आप में से बहुतों को मेरे विषय से आपत्ति हो, मग़र मैं आपकी तीखी प्रतिक्रिया चाहूँगा.. 


तो अगली पोस्ट तक झेलते रहिये


IPL matches को, इस सरकार को और मुझे भी.. 


साधुवाद


राजसावा

रविवार, 6 नवंबर 2011

पिता का न होना!!

                                    कल देव उठनी एकादशी थी. ठीक पांच वर्ष पूर्व, इसी तिथि को पापा हुकुम दिवंगत हुए थे. उनके ना होने से आज आसपास सभी कुछ दिशाहीन दिखाई देता है. सब बेमज़ा है. 

हालाँकि काफी हमदर्द है, काफी हमराज़ हैं. मगर पापा की जगह कोई नहीं ले सकता. हर साल मैं इस सच को बिसारने की कोशिश करता हूँ, कि पापा नहीं हैं, और हर साल ये बादल फिर घुमड़ आते हैं. 
                                      खैर मैं तो वक़्त के साथ और बातों में मशगुल हो जाऊंगा. मगर मम्मी..? वो कभी अपना दुःख ज़ाहिर नहीं करते, और न ही करेंगे. उनके जैसा मजबूत दिल भगवान हर किसी को नहीं देता. मैं चाहे मम्मी को सारी खुशिया दे दूं, मगर पापा नहीं ला सकता. इस जगह खुद को बहुत अकेला पाता हूँ. मम्मी ख़ुद की और पापा की भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं. राजपूत समाज क्या, कोई भी समाज हो, विधवा होना एक अभिशाप हो जाता है, जो एक बेकुसूर औरत को ज़िन्दगी भर झेलना पड़ता है. मैं शायद कभी नहीं जान पाउँगा कि ये बेरंग रिवाज़ क्यूँकर बनाये गए? न ही किसी से पूछ पाउँगा. ये तो सदियों का चलन है. है ना ? 


                                              मैंने लोगो को बेकार की बातों पर झगड़ते देखा है, ख़ुद की ज़िन्दगी को नरक बनाते देखा है. मग़र याद रखिये, जीवन की सांझ में यही साथी होगा जो आपको हौंसला देगा. बाकी सारे रिश्ते-नाते अपनी राह पकड़ेंगे, और इसमें कुछ गलत भी नहीं है. सब को हक है. तो इस ज़िन्दगी की इज्ज़त करना सीखिए. हर पल को बेशकीमती बना दीजिये. अपने जीवन साथी को अपना वक़्त दीजिये. 
                          आज जब मेरी शादी की तैयारियां चरम पर हैं तो वो शख्स नहीं हैं जो ऐसे मौके की जान हुआ करता था. शादी होनी है सो होगी, दुनिया भी चलती रहेगी, पर मेरे अन्दर से कुछ हिस्सा उसी वक़्त के मुहाने पे छुट गया है जहाँ पापा ने साथ छोड़ दिया था. मैं चाह कर भी वहां से खुद को नहीं ला पाता. सब की ख़ुशी के लिए मुस्कुराऊंगा भी, पर जिसे अपनी ख़ुशी दिखानी थी, वो मेरे पास नहीं है. 


                    सिर्फ यही कहूँगा कि जीवन में बाकी रिश्ते बनते-बिगड़ते  रहते हैं, सब खोने पर फिर से मिल भी जाता है, मग़र माँ-बाप एक ही बार मिलते हैं. जो ख़ुशनसीब अपने पिता के सानिध्य में हैं, उन्हें यही कहूँगा कि उन्हें वक़्त दो, उनका आशीर्वाद लो, उनसे उनका वक़्त जानो, अपनी जड़ो को पहचानो. अपने पिता को एहसास दो कि वो आपके लिए कितने ख़ास हैं.. क्यूंकि वक़्त आपके लिए इंतज़ार नहीं करेगा. 

मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

चलता फिरता एक खिलौना..

प्रणाम!!

                                काफी दिनों तक कुछ ख़ास बात नहीं हो पा रही थी. कईं मौके आये जब आप सभी से  कुछ कहने को दिल चाह मगर वक़्त नहीं था. सबसे पहले आप सभी को world cup जीतने की ढेरों शुभकामनायें.. दुसरे, हम विक्रम संवत 2068 में प्रविष्ट हो चुके हैं. बहुत ज्यादा उमंगें मन में हैं जो बयां करना ज़रा मुश्किल होगा. बहरहाल आपको बताना चाहूँगा कि प्रफुल्ल और मम्मी इस april में सावा से उदयपुर shift हो जायेंगे. सावा लगभग ख़ाली हो जायेगा. दुःख तो होता है अपनी ज़मीन छोड़ने का, मगर एक बेहतर कल के लिए ये migration बेहद ज़रूरी है.मुझ पर विवाह का दबाव भी बनता जा रहा है. सारी बातें व्यवस्थित रहीं, तो इसी साल या अगले साल की शुरुआत में  मैं भी सामाजिक प्राणी हो जाऊंगा. ये बात नहीं है कि अभी मैं सामाजिक प्राणी नहीं हूँ. मगर विवाहोपरांत आपको license मिल जाता है. किसी दौर में मैं विवाह संस्था के विरुद्ध था, मगर गुजरते वक़्त के साथ-साथ महसूस हुआ कि आपकी ज़िन्दगी सिर्फ आपके सपनों तक ही सिमित नहीं है, आपको समाज की बात भी रखनी पड़ती है. शायद यही एक खासियत है जो हमें जीव-जगत के दूसरे प्राणियों से अलग करती है. 
               एक और बात मेरे numbers जो अभी active है:- 9928773107 (राजस्थान) और 9825073107 (गुजरात). आप यदि कोई सन्देश देना चाहें या बात करना चाहें तो मुझे राजस्थान वाले नंबर पर संपर्क कर सकते हैं.
       सही बताऊँ तो बातों का खज़ाना है आज मेरे पास!! कुछ बताने जैसी हैं तो कुछ छुपाने जैसी. बताने वाली बातें इतनी मज़ेदार नहीं हैं, जितने कि छुपाने वाली..तो बेहतर होगा कि मैं मौका देखकर चोक्का मारूं...क्या कहते हैं?? तो एक बार फिर अपने पकाऊ दोस्त को आज्ञा दीजिये.. जल्दी ही कुछ चटपटाहट  के साथ हाज़िर होता हूँ..

 तब तक झेलते रहिये..
राजसावा