गुरुवार, 28 मार्च 2013

नाच

प्रणाम, 

                                  दोस्तों, दुःख और सुख को ग्रहण करने के हम सबके अपने-अपने तरीके हैं। मृत्यु और जीवन को आप कैसे लेते हैं, ये कई कारकों पे निर्भर करता है। इसी सन्दर्भ में एक छोटी-सी कहानी पेश कर रहा हूँ- 

                        एक जाने-माने संगीतकार थे। उन्हें एक अजीब-सा शगल था, कहीं तन्हाई में जा बैठ तबला बजाना। एक बार वे देखते हैं, जैसे ही उन्होंने जंगल में तबला बजाना प्रारंभ किया, तबले की आवाज़ सुनकर बकरी का नन्हा-सा बच्चा दौड़कर आ गया। 


                                                             जैसे-जैसे संगीतकार तबला बजाते, वह कूद-कूद कर नाचता जाता। फिर तो जैसे यह हमेशा का क्रम हो गया, संगीतकार का तबला बजाना और उस मेमने का उछलना, नाचना। 
एक दिन जब उन तबलावादक से नहीं रहा गया, उन्होंने उस मेमने से पूछा, 
                                 'क्या तुम पिछले जन्म के कोई संगीतकार हो या फिर संगीत के मर्मज्ञ, जो शास्त्रीय संगीत का इतना गहरा ज्ञान रखते हो। तुम्हें मेरी राग-रागिनियों की ये पेचीदगियां कैसे समझ में आती हैं?'


                                                               उस मेमने ने कहा, 'आपके तबले पर मेरी माँ का चमड़ा मढ़ा है। जब भी इसमें से ध्वनि बहती है, मुझे लगता है जैसे मेरी माँ प्यार और दुलार भरी आवाज़ से मुझे पुकार रही है और मैं ख़ुशी से नाचने लगता हूँ...।'  

                 दैनिक भास्कर की 'अहा! ज़िन्दगी' के विशेषांक में आई इस प्रस्तुति को पढ़कर लगा, कहीं ये सीमित पाठकों तक ना रह जाए, और मैंने आपके लिए इसे अपने ब्लॉग में उतार दिया। आलोक सेठी जी को हार्दिक धन्यवाद!! 

                               यकीन रखता हूँ कि आपकी होली शांति, मस्ती और रंगों भरी रही होगी। चलिए, कुछ और कहानियाँ आने वाले दिनों में साझा करने की तमन्ना है, तब तक 

झेलते रहिये 
राजसावा  

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