प्यारे भाइयों और बहनों,
बहुत दिनों से हाथ कुछ लिखने को मचल रहे थे
और आज दिमाग ने भी साथ दे दिया। एक यादों के नोट्स का फोंल्डर खुल गया और मैं लिखने
बैठ गया। शायद वो 89 का साल था, आज से करीब तीस साल पहले, जब मैं सात साल का था। स्थान? मेरा पैतृक गाँव- सावा
तो लिखने से पहले मैं इसी उलझन में हूँ कि
आपको सही साल में ले जा सकूँ। पहले सावा के रावले में हमारे घर में प्रवेश करते
हैं।
नीम के नीचे बने हुए शिव मंदिर के उस
चबूतरे के बायीं ओर का दरवाजा विजय सिंह जी माट’साब
का यानि मेरे दाता का था। दरवाजा मतलब, एक लंबा चौड़ा मुख्य द्वार।
दरवाजे में ही एक बैठक का कमरा- जहां दाता का अधिकतर समय व्यतीत होता था। उनसे मिलने
वाले भी यहीं आते थे। हमारा होमवर्क यहीं जांचा जाता।
और थोड़ा अंदर चलें तो खुले आँगन के बाद चहारदीवारी
में कमरे और छतें शुरू होती हैं।
“पेलो कमरो” यानि पहला कमरा जिसमें छोटे
दाता और भाबू रहते हैं। इसके ऊपर अगर आप “मेढ़ी” (छत) पर चढ़ोगे तो पूरे रावले को
देख सकते हो। “बचलो कमरो” (बीच का कमरा) में तेज़ू काकीसा, भमु, काना और राणु रहते हैं। इस वक़्त लोकू काका सावा
में नहीं थे। काकीसा ही सब संभालते थे। मगर उनके सामान के अलावा इस बिचले कमरे में
मम्मी-पापा की दोनों गोदरेज की अलमारियाँ और एक बड़ा बक्सा भी रखा है, जिसे देख कर मुझे मम्मी की याद आती थी।
इसी कमरे में नजदीकी रिशतेदारों को भी
ठहराया जाता था। लदूना से भुआ-फूफोसा आते, तो यहीं
उनके लिए रसना शर्बत बनाकर परोसा जाता था। मेरे लिए वो ही मेहमान थे मेरे बचपन
में। क्योंकि उनकी आवभगत में भाबू कोई कमी नहीं रखते थे। वो ऐसा समय था, जब मेरे दूसरे रक्त-संबंधियों के बारे में मेरी जानकारी शून्य ही थी। बिचले
कमरे के बाहर एक सुंदर छायादार लालपत्ती (बोगनवेलिया) की बेल थी जिससे पूरे चौक में
छाया रहती थी।
इस कमरे के बाद आता था ढाल्या। यहाँ गायों
के लिए चारा और पुराना भंगार स्टोर होता था। इसी स्टोर में पापा की टूटी साइकल भी
पड़ी होती थी, जिसके बारे में दाता बताते थे कि वो
रावले में आई पहली साइकल थी। हम दाता के किस्सों को बड़ी जिज्ञासा से सुना करते थे।
इसी ढाल्ये के कमरे में किसी वक़्त मोटे दाता ओंकार सिंह जी रहा करते थे।
आप यदि आज सावा जाओगे तो अब यहाँ तेज़ू
काकीसा की रसोई है। इसके बाई और चोपाड़ और यदि सीधे जाओ तो “गायों का ठाण” आ जाता
है। चोपाड़ में हम सबसे आख़िर में एंट्री लेंगे।
गायों के ठाण में मेरे बचपन की स्मृति में
बसी “पीली गाय” और “शारदा गाय” बंधी मिल जाएंगी। पीली गाय का कद अपेक्षाकृत लंबा
था और शारदा मेरी आदर्श गाय थी। कुछ बकरियाँ भी थी,
पर वो मुझे इतनी याद नहीं। इनके भी काफी किस्से हैं, वो फिर
कभी। ठाण में एक छोटी सी “बारी” (खिड़की) है जिसे राजू दादा के घर का shortcut
रास्ता निकलता है। अब इसे बंद कर दिया गया है। कहा जाता है कि पहले
घर की औरते इन्हीं छोटी बारियों से होकर एक दूसरे से मिलने जाती थीं। रावले के चौक
में तो अब निकलने लगी हैं।
अब ठाण से चलते है चोपाड़ के पीछे। यहाँ
दाता ने काफी फूल और तरह तरह के पौधे लगा रखे हैं। अमरूद और आम भी हैं। आगे कुछ
कदम पर चबूतरा है जहां कोने में अनार का पेड़ है। सामने नाल (सीढ़ियाँ) जा रही है , यानि दूसरी “मेढ़ी”। इसपे चढ़कर आप घाटी का नज़ारा देख सकते हैं।
अनार के पेड़ के सामने एक छोटा सा कमरा है, जिसे शिव काका का कमरा भी कहते हैं। मैं उन दिनों यहीं रहता था। मेरी
पढ़ाई का समान और एक छोटा सा पुजाघर भी है, जहां मैं अपने
हिसाब से पुजा करता था। इस कमरे में छिपकली भी यदा-कदा अंडे दे जाती है।
“नाल” और शिव काका के कमरे के बीच में
खुला अहाता है, जिसके राइट साइड में रेत का ढेर है, जिस पर कभी-कभी नहाने से पहले या छुट्टी वाले दिन हम उछलकूद करते थे। और
विपरीत दिशा में यानि नाल के ठीक नीचे पानी की टंकी बनी हुई है और नहाने की जगह भी
है। दरवाजा नहीं है, बल्कि भाबू ने पुरानी गहरे रंग की साड़ी
से आढ़ कर दी है। बच्चों को तो खुले में ही नहलाया जाता है मगर घर की औरतें नहाते
वक़्त आढ़ कर लेती हैं। पानी की टंकी के ऊपर खिड़की से आप हमारा बगीचा निहार सकते
हैं।
पानी
की टंकी और रेत के ढेर के बीच ठीक सामने, यानि
चोपाड़ के पिछले गेट के विपरीत एक अंधेरा कमरा है और इस कमरे के अंदर भी एक और कमरा
है। इसके अंदर मैं जब भी गया हूँ, भाबु की साड़ी पकड़ के ही
गया हूँ। गुप्प अंधेरा और अनाप-शनाप कबाड़ वाला बड़ा सा भयावह कमरा। कोई बच्चा इसमें
नहीं जाता था। अब यहाँ बेबी काकिसा का परिवार रहता है। और अब ये भयावह भी नहीं
रहा। शिव काका के कमरे की जगह नए कमरे ने ले ली। पानी की टंकी की जगह स्टोर रूम आ
गया है।
अनार के पेड़ के नीचे एक झूला था, जिस में छोटे से कुलू को सुलाया जाता था। कुलू के हाथ या पाँव में
फ्रेक्चर हो गया था तो प्लास्टर बंधा रहता था, वो झूले में
लेटे-लेटे ही खुद को टेढ़ा करके जमीन पर पेशाब कर दिया करता था और आते-जाते लोगों
को चिढ़कर “ढांडी- ढांडी” (जानवर) कह देता था।
अब अनार के पेड़ और नाल के बीच से रास्ता
जाता है इस बड़े से घर के आखिरी और सबसे खूबसूरत हिस्से का, जिसे हम बगीची कहते थे। बगीची में प्रवेश करते ही दोनों तरह यूकेलिप्टस
के दो-तीन दैत्याकार पेड़ हैं। ये पेड़ इतने विशाल थे कि सावा के बस स्टैंड से दिख
जाते थे। एकदम कोर्नर पर लालपत्ती की बेल है, जिसके नीचे जया
जीजा, झीलु जीजा और डिम्पल जीजा “गुड़िया –गुड़िया” खेला करते
थे। एक बार जया जीजा ने एक प्रोपर मिट्टी और गोबर का चूल्हा भी बनाया था, जिसकी खूब तारीफ हुई थी। थोड़ा आगे बढ्ने पर कनेर,
मोगरा, गूँदे का पेड़, चमेली, गुलाब, झमेरी का पेड़, इमली, शहतूत का पेड़ भी मिल जाएंगे। बिल्व पत्र भी है, जिसके
लिए कई लोग सोमवार को हमारे यहाँ आते थे।
बगीची के एक कोर्नर में दाता ने कई साल
पहले गोबर-गैस संयंत्र लगवाया था। जो सुचारु रूप से काम करता रहा। इसमें गोबर
डालने की प्रक्रिया मेरे लिए हमेशा उत्सुकता का विषय रही। बगीची के अंतिम कोर्नर
पर “तारच” (शौचालय) है, जिसमें बैठ कर आपको बस
निवृत्त होना है, बाकी का सफाई का काम बाहर की ओर सूअर कर
देते थे। इसमें पानी की जरूरत नहीं पड़ती थी। बगीची के एक अन्य कोने में खुला हुआ
स्नानागार भी था, जहां आप बाल्टी, मग
और साबुन ले जाकर नहा सकते हैं। ये भी अधिकतर महिलाओं के लिए आरक्षित था।
अब बगीची भी बदल गयी है। लालपत्ती की जगह बेबी
काकीसा की रसोई आ गयी है। गोबर गैस संयंत्र हमारी यादों में रह गया है, उसकी जगह अब पानी का भूमिगत टँक है। “तारच” और स्नानागार भी विलुप्त हो गए
और उनकी जगह नए आधुनिक toilet और बाथरूम हैं। बगीची के आधे हिस्से
में घर की जरूरत को देखते हुए कुलू की शादी से पहले दो कमरे बनवा दिये गए। इनमें से
एक गेस्टरूम है और दूसरा कुलू और टीना बिंदणी का कमरा है, जिसमें
मेरी प्यारी भतीजी यशु की किलकारियाँ भी सुनी जा सकती हैं।
बगीची के अंत में काफी पहले एक गेट भी खोल
दिया गया था जहां से आप मुख्य सड़क या घाटी की ओर जा सकते हो।
अब पीछे मुड़ते है, और बगीची से निकलकर प्रवेश करते हैं, हम सबकी प्यारी
चोपाड़ में। ये सभी का लिविंग रूम था। चोपाड़ यानि हमारी रसोई,
हमारा स्टोर, हमारा स्टडी रूम, हमारा सबकुछ।इसके
दो किवाड़ थे। पहला जो रावले की तरफ या मुख्य दरवाजे की तरफ खुलता था और दूसरा जो बगीची
की ओर जाता था।
चोपाड़ में आप जूते-चप्पल नहीं ला सकते क्यूंकी
किवाड़ के ठीक सामने कुलदेवी बायण माता या ड्याड़ी माताजी का स्थान था। ड्याड़ी माताजी
के लेफ्ट साइड में भाबू का मुख्य चूल्हा था, जहां हमारा
खाना पकाया जाता था। सर्दियों में भाबू गाय के बछड़े या बकरी के बच्चे को अपनी गोद में
लेकर ठंड से बचाने के लिए आग से तपिश करते थे। ड्याड़ी माताजी के राइट साइड में पानी
का परिंडा था जहां हाथ धोकर ही पानी पी सकते थे। ये स्थान बहुत ठंडा रहता था। फ्रिज
तो था नहीं, तो गर्मी के दिनों में दाता कभी तरबूज या आम लाते
तो उन्हें यहीं रखकर ठंडा किया जाता था।
परिण्डे के पास कोने में भगवान का आल्या (ताक)
था जहां शिव-पार्वती की तस्वीर थी। भाबू और दाता यहीं पूजा किया करते थे। शक्कर का
प्रसाद तो सामान्य था पर सोमवार को पंचामृत भी चढ़ाया जाता था। दहि-शहद के इस प्रसाद
का मुझे हमेशा इंतज़ार रहता था। भगवान की ताक के बाद दूसरा किवाड़ खुलता है और उसके बाद
दूसरे कोने में जूतों की रेक थी। छोटी सी। उसके बाद दो बड़ी बड़ी ताकें जो परिण्डे के
ठीक सामने पड़ती थी। यहाँ हम बच्चों की किताबें या जरूरी सामान पड़ा रहता था।
मुख्य किवाड़ और चूल्हे के बीच में मिट्टी और
गोबर से बनी दो कोठियाँ थीं। इन कोठियों पर लकड़ी के छोटे-छोटे फाटक लगे थे। कोठे के
अंदर गेंहू, मक्की को स्टोर किया जाता था, ये बहुत गहरी थीं। कोठे के ऊपर खाने पीने का सामान रखा रहता था। भाबू बताते
हैं कि जब पापा छोटे थे तो गरम रोटी खाने के लिए कोठे पर चढ़ जाते थे और दूसरे भाई-बहनों
से पहले खाना चट कर जाते थे।
अब ये चोपाड़ भी इतिहास हो गयी है। करीब बीस
साल पहले इसे तोड़ दिया गया और इसकी जगह चौक ने ले ली। हालांकि ड्याड़ी माताजी का मंदिर
जरूर बरकरार है। मगर मैं चोपाड़ को बहुत याद करता हूँ। खैर!!
मैं उस वक़्त को टटोल रहा हूँ, जब मेरी बहनें होली से पहले मेरे लिए नारियल बनाती थीं। जी हाँ, नारियल। वो भी गोबर के।
एक मिट्टी के दीपक में कुछ पैसे रख दिये
जाते थे 20 पैसा, 10 पैसा या चार आने (25
पैसा)। और 50 पैसे या एक रुपया रखे होते तो कहने ही क्या! अब इस
दीपक के ऊपर एक और दीपक औंधे मुंह रख के इसे ढँक दिया जाता और गोबर को नारियल की आकृति देके उसके बीचोंबीच ये दीपक का बना कटोरा रख के पेकिंग कर दी जाती। फिर इसे
सुखाने की जद्दोजहद होती। बार बार चेक किया जाता कि बराबर सूखा है या नहीं। इसके
साथ ही बनाए जाते थे बड़ूल्ये। बड़ूल्ये भी गोबर के ही बने होते थे और अलग अलग आकृति
के। मगर हर बड़ूल्ये के बीच में छेद रखा जाता था ताकि इसे माला में पिरोया जा सके।
षट्कोण, चौकर, तारा, चंद्राकार, अर्द्ध चंद्राकार बड़ूल्ये।
और जब होलिका दहन होता तो सावा रावले के
ऊपर घाटी पे जाकर इन बड़ूल्यों की माला को अग्निदेव को समर्पित कर दिया जाता था।
हम बच्चों के हाथ में खुले बड़ूल्ये लग
जाते तो मज़ा दुगुना हो जाता था। बड़ूल्ये को अंगूठे,
तर्जनी और मध्यमिका से पकड़ के फर्र से हवा में हवा में उछालने का मज़ा ही कुछ और था। कभी कभी कुछ बहादुर बच्चे जलते बड़ूल्ये के साथ भी ऐसी हिमाकत कर जाते जिसका
खामियाजा किसी की जली हुई ओढनी होती थी या बा’सा की धोती में
काणा (छेद)।
नारियल को बहनें भाइयों को देती और हम इस
आस से फोड़ते कि उसमें कितने पैसे निकलेंगे। मेरे स्मृतिपटल पर अब भी वो पैसे
निकलने की खुशी और गोबर की महक गहरे पैठी है।
मगर इन सब सालों में बड़ूल्ये कहीं पीछे
छुट गए। मैं आज भी उन दिनों को बहुत मिस करता हूँ। काश हम ज़िंदगी भर सावा ही रहते।
बचपन जैसा मन हमेशा बना रहता।
मैं अप्पू से भी पहले काना और कुलू का दीपु
दादा था। भमु मेरी लाड़ली थी। हम भाई-बहनों जैसा कोई भी नहीं था। चोपाड़ में राजू दादा
के ठहाके हुआ करते थे। मैंने हमेशा उन्हें अभिभावक माना।
अब मैं एक साढ़े छः महीने के बेटे का पिता
हूँ, उसे हँसते-खिलखिलाते देख मुझे यही लगता है, कि उन
दिनों मैं भी इतना ही सरल और निष्कपट बच्चा रहा हूँगा। मैं उसे कुछ ऐसा ही नैसर्गिक बचपन देना
चाहता हूँ। ये संभव भी है। शायद नहीं भी।
देखते हैं,
क्या होता है। आखिर हमें “प्रेक्टिकल” भी तो बनना पड़ता है। समय आपको “समझदार” बना देता
है।
ये 2019 है,
शायद वो 1989 का साल था, मेरा सातवाँ साल।
मेरा बेहद सुखद, अनगढ़, सुनहरा साल
क्रमशः
राजसावा
so nyc sir
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